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वोटरपार्क मे कभी न जाए

 #waterpark #वोटरपार्क मे स्नान आदि क्रीडांगण न करे यह अशास्त्रोक्त है  मनुष्यो के द्वारा निर्मित वोटरपार्क आदि कूपो के दूषित जल मे कभी भी आनंद प्रमाद के लिए स्नान न करना परकीयनिपानेषु न स्न्नायाच्च कदाचन। निपानकर्तुः स्नात्वा तु दुष्कृतांशेन लिप्यते ॥  यानशय्यासनान्यस्य कूपोद्यानगृहाणि च।  अदत्तान्युपभुञ्जान एनसः स्यात्तुरीयभाक् ॥  नदीषु देवखातेषु तडागेषु सरःसु ।  स्नानं समाचरेन्नित्यं गर्तप्रस्रवणेषु च ॥  गृहस्य ब्राह्मणको उचित है कि अन्यके बनायेहुए जलाशयमें (ओ केवल अपनेही लिये बनाया हो, उसमें) स्नान नहीं करे क्योंकि उसमें स्नान करनेसे उसके बनानेवालेके पापोंके अंशका भागी होना पड़ताहै ॥ अन्यकी सवारी, शय्या, आसन, कूप, बाग अथवा गृहको विना उनके स्वामीके अनुमति दिये हुए उपभोग नहीं करे; क्योंकि उपभोग करनेसे उनके स्वामीके पापोंके चौथे अंशका भागी होगा ॥  तीर्थाभाव तु कर्तव्यमुष्णोदकपरोदकैः ॥ स्नानं तु वह्नितप्तेन तथैव परवारिणा ॥  शरीरशुद्धिर्विज्ञाता न तु स्नानफलं भवेत् ॥ अद्भिर्गात्राणि शुद्धचंति तीर्थस्नानात्फलं भवेत् ॥ तीर्थके अभाव में गरम जलसे और पूर्वोक्त नदी आदिसे भी भिन्न २ जलसे स्नान

पिता पुत्र का मुख देख ले

 पितापुत्रस्य जातस्य पश्येच्चेज्जीवतो मुखम् ।। ऋणमस्मिन्संनयति अमृतत्वं च गच्छति ॥  जातमात्रेण पुत्रेण पितॄणामनृणी पित्ता ॥  तदह्नि शुद्धिमाप्नोति नरकात्त्रायते हि सः ॥  एष्टव्या बहवः पुत्रा यद्येकोऽपि गयां व्रजेत् ॥यजते चाश्वमेधं च नीलं वा वृषमुत्सृजेत् ॥ कांक्षंति पितरः सर्वे नरकांतरभीरवः ॥  गयां यास्यति यः पुत्रः स नस्त्राता भविष्यति।।    _```_पिता यदि उत्पन्न हुए पुत्रका मुख जोवित अवस्थामें एकवार भी देखले तो वह पितरोंके ऋणसे मुक्त होकर स्वर्गको प्राप्त होता है , पुत्रके पृथ्वीपर उत्पन्न होते ही मनुष्य पितरोंके ऋणसे छूट जाता है और उसी दिन वह शुद्ध होता है कारण कि यह पुत्र नरकसे उद्धार करता है ,बहुतसे पुत्रोंकी इच्छा करनी उचित है कारण कि यदि उनमेंसे कोई एक भी पुत्र गयाजीजाय, कोई अश्वमेध यज्ञको करे और कोई नील ब्रैषका उत्सर्ग करे ,नरकसे भयभीत हुए पितृगण "जो पुत्र गयाको जायगा वही हमारे उद्धारका करनेवाला होगा" यह विचारकर ऐसे पुत्रकी इच्छा करते हैं ।॥_```_ पं० धवलकुमार शास्त्री गुजरात

वेदो मे हिंसा ?

वेदों में बलिप्रथा  ============ आज कल बहुत से लोग ऑडियो और वीडियो तथा बातचीत में यह बताने का प्रयास करते है कि बलि प्रथा या मांस भक्षण वेदकाल से होता रहा है। जानकारी के अभाव में या तो हम चर्चा नही करते या कन्नी काटने लगते है। ब्राह्मण होंने पर धर्म है की हम कुछ बाते जो आधार है अवश्य जाने और निश्चय ही उनका निवारण भी करें। हिन्दू -धर्म में सर्वत्र निर्दोषों के प्रति अहिंसा बरतने का ही प्रतिपादन किया गया है और सर्वत्र हिंसा का निषेध। वेदों से लेकर पुराणों तक में पशु-बलि का कहीं भी समर्थन नहीं मिलता। कुछ महाज्ञानी जिव्हा के प्रभाव में वैदिक साहित्य की ऐसी व्याख्या कर देते है कि अर्थ का अनर्थ हो जाता है, वैदिक साहित्य की जानकारी न होने की वजह से सामान्य जन उनकी बातों को सत्य मान लेते है। हम भारत मे प्रचलित बली प्रथा को समझने से पहले हम पहले ये देख लेते है कि क्या वास्तव में वैदिक साहित्यो में जीव हिंसा बलि प्रथा आदि बाते है ।। जब कोई अंधा होता है तो सोचता है कि सभी अंधे हो जाये और यही कारण था कि पश्चिमी सभ्यता ने जब भारतीय सभ्यता पर अतिक्रमण करना शुरू किया तो सबसे पहले उसने हमारी संस्कृति

वर्णसंकरो की पहचान

 ~~*#वर्णसंकरों की पहचान और इनके लक्षण*# - ।।  ● ये नेताओं के भक्त होते है लेकिन प्रभु के नही प्रभु का केवल नाम प्रयोग करते है अपने स्वार्थ हेतु  ● ये नेताओं की सुनते है पर शंकराचार्य जी सन्तों और ब्राह्मणों की नही ।  ●ये धर्म की बात तो करते है पर शास्त्रों के अनुसार नही  ● ये राष्ट्र की बात तो करते है पर नीति अनुसार नही करते ● ये खुद वर्णसंकर है इसी कारण ये वर्ण व्यवस्था कभी नही मानते धर्म के मूल वर्ण को मानने से मना कर देते है  ● भक्ष्य अभक्ष्य शौचाचार इनके घरों में कुछ नही मिलेगा कहीं भी जाकर कुछ भी ठूस लेना और फिर स्वयं को धार्मिक और राम भक्त दिखाना ये दिखावा इनके अंदर कूट कूट के भरा रहता है  ● जप तप साधना से इनका दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नही होता क्योंकि ये पहले ही वर्णसंकर है तो न तो ऐसो का कोई गुरु हो सकता है न ही शास्त्र को समझने और उस अनुसार चलने की बुद्धि इनमें होती इसीलिए ये आजीवन केवल मनमाने ढंग और मनमानी सोच से चलकर समाज को और अपने जैसे वर्णसंकरों को भटकाने में अहम भूमिका निभाते है  ● जात पात वर्ण व्यवस्था सबको झूठ कहकर ये लोग किसी के साथ भी विवाह करने में नही हिचकते मानवता

मोतीचूर के लड्डु का भोग

 आज हनुमान जयंती है और सभी जगह भोग लगाते होगे लेकिन क्या यह मान्य है?  अधिकांश हमने सभी हनुमानजी के मंदिरो मे मोतीचूर के लड्डु का भोग लगाते देखा हे भक्तो को इस विषय मे शास्त्रो का क्या मार्गदर्शन है ? 👉 हनुमानजी को मोतीचूर के लड्डू का भोग कौन नहीं लगा सकतें ?  १ शूद्र एवं सभी संकर जातियाँ  २ अनुपनीत  ३ व्रात्य  ४ परशाखा में जिनका उपनयन हुआ हो वे शाखारण्ड तथा  ५ उपनीत होनेपर भी जो लोग नित्यक्रियाहीन हैं एवं  ६ जो पुनरुपनयन निमित्त दोषो से द्विजत्वभ्रष्ट हैं  ७ जिनके घर शौचाचार का उचित संख्या में पालन नहीं होता  ८ जिनके घर में सूतिका रजस्वला पतित आदि के स्पर्श अंतरालसंसर्ग निमित्त सचैल स्नानादि शुचिता का पालन न हो  ९ समस्त पालन होनेपर भी जिन द्विजों के घर बलिवैश्वदेव न करते हो   १० कुण्ड  ११ गोलक  १२ समानगोत्रप्रवरगण में जिनके माता पिता का विवाह हुआ हो वह संतान  १३ विदेशयात्री एवं पतित  १४आरुढपतितापत्य(संन्यासी की उत्पन्न संतान) -  १५ बाजार से खरीदा हुआ क्रियाहीन ये समस्त निमित्त जलक्षाराग्निसंयोग  से युक्त पक्व सिद्धान्न आदि का देवताओं को भोग लगाने में अनधिकारी हैं। नारायण

विवाह योग्य निर्णय

 विवाह निमित्त जानकारी -:-  शास्त्रवादी हिंदु सज्जनो ध्यान रखे -- विवाह मे सर्वप्रथम शास्त्रज्ञ विप्र/ब्राह्मण से परिक्षण अवश्य करवाना चाहिए  कलियुग मे असवर्णविवाह -अनुलोम-प्रतिलोम आदि सभी निषिद्ध विवाह से निंदनीय प्रजाति उत्पन्न होती है। कन्यादान रजस्वला होने से पूर्व करना चाहिए अन्यथा प्रायश्चित पूर्वक कन्यादान करना चाहिए -  ब्राह्मण वो ही है जिसके उदर मे वेद है-नित्यसंध्या अग्न्युपासना -देव पितृ कर्म करता हो - जो गुरु परंपरा से वेद नही पढा वो भी अमान्य है - इसके अतिरिक्त ---->>>सभी शूद्र या तो पतित होते हैं वो ब्राह्मण होते ही नही वो मात्र नामधारी ब्राह्मण होते हैं इनमे ब्राह्मणत्व नही होता -- सभी वर्णो को और मनुष्यो को अपनी ही जाति मे विवाह करना चाहिए -  ब्राह्मण - ब्राह्मणी कन्या  क्षत्रिय - क्षत्रिय कन्या वैश्य - वैश्य की कन्या शूद्र - शूद्रा कन्या  वर्णसंकर - वर्णसंकरी कुंडक - कुंडकी  गोलक - गोलकी चांडाल - चांडाली श्वपाक- श्वपाकी स्वजाति- स्वजाति  अगर कोइ ब्राह्मण- क्षत्रिय -वैश्य और शूद्र चारो युगो मे निषिद्ध समुद्रपार यात्रा करता है तो उस ब्राह्मण -क्षत्रिय-वैश्य-और श

देवलक विशेष

 किन देवलको को कर्मकांड आदि विधि और प्रतिग्रह का अधिकार नही रहता ? अधिकार को कैसे सुरक्षित रखे ? इनको विशेष प्रायश्चित करते करते अधिकार को सुरक्षित रखा जा सकता है।जिनके पास अधिकार ही नही उनके लिए तो पहले अधिकार की प्राप्ति जरूरी है- #देवलक अर्थात् #देवमन्दिरका_पुजारी  'अपरार्क'  स्मृति वचन उद्धृत कर *देवलक* की परिभाषा दी है और कहा है कि देवलक वह ब्राह्मण है जो किसी प्रतिमा का पूजन पारिश्रमिक के आधार पर तीन वर्षों तक करता है, जिसके लिए वह श्राद्धों के पौरोहित्य के लिए अयोग्य हो जाता है। स्पष्ट है, इस कथन के अनुसार देवलक ब्राह्मण वित्तार्थी है ।  मनु (३।१५२) ने *देवलक* को श्राद्धों तथा देवताओं के सम्मान में किये गये कृत्यों में निमन्त्रित किये जाने के लिये अयोग्य घोषित किया है ।  कुल्लूक ने देवल को उद्धृत कर इस विषय में कहा है कि जो व्यक्ति किसी देव स्थान के कोष पर निर्भर रहता है, उसे *देवलक* कहा जाता है।  वृद्ध हारीत (८/७७-८०) के मत से केवल शिव के वित्तार्थी पूजक *देवलक* कहे जाते हैं। जय महादेव  पं० धवलकुमार शास्त्री गुजरात